उत्तराखण्ड के वन पंचायतों व खत्तेवासियों के लिए एफआरए है संजीवनी।बिन्दुखत्ता को भी मिलेगा एफआरए के तहत राजस्व गांव का दर्जा।

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उत्तराखण्ड के वन पंचायतों व खत्तेवासियों के लिए एफआरए है संजीवनी।बिन्दुखत्ता को भी मिल सकता है एफआरए के तहत राजस्व गांव का दर्जा।

बसन्त पाण्डे/ भुवन भट्ट

लालकुआं। वन अधिकार अधिनियम 2006 जंगलोें में खत्तों के रूप में रहने वालों के लिए वरदान साबित हो रहा है। केंद्रीय जनजाति मंत्रालय के अधीन यह कानून केंद्र शासित प्रदेशों को छोड़ समस्त भारत के राज्यों में लागू है। देश के अन्य राज्यों की ही तरह यदि एफआरए को उत्तराखंड में भी सही ढंग से लागू किया जाए तो पर्वतीय क्षेत्रों में लोगों को उनके पीढ़ियों से चले आ रहे वनों पर अधिकार पुनः प्राप्त हो सकेंगे। इसी कानून के तहत रामनगर वन प्रभाग के अंतर्गत तीन गांवों को राजस्व गांव का दर्जा दिया गया है इसी प्रति आशा में बिंदुखत्ता क्षेत्र के लोगों ने भी वन अधिकार अधिनियम के तहत दावा उपखंड स्तरीय समिति को भेजा है। समिति की गत दिवस हुई बैठक से आशा व्यक्त की जा रही है कि जल्द ही बिंदुखत्ता भी राजस्व गांव बन जाएगा।

लालकुआं विधानसभा विधायक डॉक्टर मोहन सिंह बिष्ट ने विधायक बनने के समय से ही बिंदुखत्ता को राजस्व गांव बनाने के लिए तरह-तरह के सूचना अधिकार लगाए गए और अंततः यह निर्णय लिया गया कि 2006 वन अधिकार अधिनियम के तहत ही बिंदुखत्ता को आसानी से राजस्व गांव बनाया जा सकता है फिर क्या था वन अधिकार अधिनियम पर विशेष जानकारी रखने वाले एडवोकेट तरुण जोशी ने इस का नेतृत्व किया और डॉक्टर मोहन सिंह बिष्ट की देखरेख में ग्राम स्तरीय वन अधिकार समिति का गठन किया गया और समिति के अध्यक्ष अर्जुन नाथ गोस्वामी व सचिव भुवन चंद भट्ट को नियुक्त किया गया और लगभग 50 से अधिक लोग ने सदस्य के रुप में शामिल होकर काम शुरू कर दिया।

जिसके चलते बिंदुखत्ता की ग्राम स्तरीय वन अधिकारी समिति ने उपखंड स्तरीय वन अधिकार समिति के समक्ष अपना दावा पेश किया गया । जिसमें गत दिवस 22 नवंबर 2023 को उपखंड स्तरीय समिति (उप जिलाधिकारी, एसडीओ वन विभाग, सहायक समाज कल्याण अधिकारी सहित अन्य) की बैठक में उक्त दावों को भली-भांति जांचा जा रहा है। उपजिलाधिकारी परितोश वर्मा ने बताया कि उपखण्ड स्तिरीय एक बैठक में पूरे दावों की जांच नहीं हो पायी है दिसम्बर माह के प्रथम सप्ताह में दूसरी बैठक है जिसमे आषा व्यक्त की जा रही है कि सभी दावों की पूरी जांच हो कर जिला स्तरीय समिति (जिलाधिकारी, डीएफओ, जिला समाज कल्याण अधिकारी सहित अन्य) को भेजी जायेगी। ग्राम समिति के सचिव भुवन भट्ट ने बताया कि उपस्तिरीय समिति से दावे मंे कमी आयी थी जिसे समिति ने पूरा कर दिया है अब आशा है कि उक्त दावे जिलास्तीय समिति को ही भेजे जायेंगे जिसके बाद शासन उक्त रिपोर्ट के अनुसार अधिसूचना जारी करेगा। इस प्रक्रिया में समय लग सकता है पर मजबूत रास्ता है।

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खात्ता क्षेत्र पर्वतीय मूल के पशुपालकों का डेरा विदित रहे कि खात्ता क्षेत्र पर्वतीय मूल के लोगों का डेरा हुआ करते थे जो कि शीतकाल में चारे की कमी के कारण तराई-भाबर के जंगलों में आकर छः माह तक पशुपालन करते थे और फिर गर्मियों के मौसम में पशुओं सहित वापस अपने पर्वतीय घरों को लौट जाते थे। वन विभाग की विभिन्न रिपोर्टों के अनुसार ये प्रथा चंद वंश(700-1790) से चली आ रही थी। उसके बाद 1790 से 1815 तक नेपाली गोरखाओं का शासन रहा और फिर अंग्रेजी शासन प्रारम्भ हुआ। अपनी उसी प्राचीन परंपरानुसार देहरादून से लेकर हरिद्वार, कोटद्वार, रामनगर, हल्द्वानी होते हुए खटीमा वनबसा तक सैंकड़ों छोटे-बड़े खत्ते बसे हुए हैं। हालांकि चीनी यात्री हुएन त्सांग ने अपनी भारत यात्रा में भी तराई भाबर में गौपालकों के ठहरने का वर्णन किया है।

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