
हिरोशिमा से गाजा तक: क्या हमने कुछ नहीं सीखा?
हर युद्ध का विरोध करें: जलता है इंसान, राख होती है इंसानियत
आज जब दुनिया के कई कोनों में बारूद की बू फैली है और आकाश में धुएं की कालिख छाई है, तब सवाल सिर्फ इतना है — क्या हमने कुछ नहीं सीखा? गाजा, यूक्रेन, सीरिया से होते हुए अब भारत-पाकिस्तान सीमा पर भी तनाव की खबरे आम हो रही हैं। लगता है, जैसे होश के घोड़े खोल दिए गए हों, और जंग के नशे में इंसानियत को फिर से दांव पर लगा दिया गया हो।
हम यह भी स्पष्ट करना चाहते हैं कि आतंकवाद किसी भी सभ्य समाज के लिए सबसे बड़ा अभिशाप है। पहलगाम जैसे कायरतापूर्ण हमलों में जिन निर्दोषों ने अपने प्रियजन खोए हैं, उनका दर्द हमारी अंतरात्मा को झकझोरता है। ऐसे हमलों की कड़ी निंदा होनी चाहिए और देश को आतंक के खिलाफ पूरी ताकत से खड़ा होना चाहिए। लेकिन हमें यह समझना होगा कि आतंकवाद का जवाब अगर एक व्यापक युद्ध बन जाए, तो वह न सिर्फ दुश्मन को, बल्कि हमें भी भीतर से तबाह कर सकता है। आतंक के खिलाफ सशक्त नीति और सुरक्षा तंत्र चाहिए, न कि युद्ध से धधकता भविष्य।
युद्ध कोई फिल्मी सीन नहीं होता जहाँ हीरो अंत में जीत जाता है। असल ज़िंदगी में युद्ध सिर्फ मातम लाता है — माताएं रोती हैं, बच्चे अनाथ होते हैं और धरती मां का कलेजा छलनी हो जाता है।
परमाणु युद्ध की कल्पना भी दिल दहला देती है। वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि अगर भारत और पाकिस्तान के बीच परमाणु हथियारों का इस्तेमाल हुआ, तो न सिर्फ उपमहाद्वीप बल्कि पूरी पृथ्वी पर ‘नाभिकीय सर्दी’ छा जाएगी। सूरज दिखेगा नहीं, फसलें उगेंगी नहीं, और करोड़ों लोग भूख-प्यास से तड़प-तड़प कर मरेंगे। यह कोई डराने वाली कहानी नहीं, बल्कि शोधकर्ताओं का कड़वा सच है।
1815 के माउंट तंबोरा विस्फोट ने एक साल तक दुनिया को जाड़े में धकेल दिया था। अब सोचिए अगर एक ज्वालामुखी ऐसा कर सकता है, तो सैकड़ों परमाणु बम क्या करेंगे? नदियां जहर बन जाएंगी, हवा में मौत तैरती नजर आएगी, और ज़मीन — वो बस श्मशान होगी।
रेडियोधर्मी प्रभाव की मिसालें आज भी मौजूद हैं — जर्मनी के जंगलों में सूअर जहरीले हैं, अमेरिका में मधुमक्खियों का शहद भी खतरनाक हो चुका है। यह सब उस युद्ध के परिणाम हैं जो ‘कब का बीत गया’ कहा जाता है, लेकिन ज़हर आज भी ज़िंदा है।
हिरोशिमा-नागासाकी की आग में झुलसी मानवता का जख्म आज भी रिस रहा है। गाजा और यूक्रेन में बच्चों की आंखों में ‘मौत की दुआ’ पल रही है। एक शोध के अनुसार, युद्धग्रस्त क्षेत्रों में 96 प्रतिशत बच्चे आज जीवन नहीं, मृत्यु की कामना कर रहे हैं। वे मानसिक और शारीरिक स्तर पर विकलांग हो चुके हैं। इन बच्चों में व्याप्त सदमा कई पीढ़ियों तक बना रह सकता है।
युद्ध की खुशी मनाने वाले भी बुरी मौत मारे जाएंगे। यह कोई शाप नहीं, बल्कि इतिहास की गवाही है। जब युद्ध होता है, तो जीत किसी की नहीं होती — हार सिर्फ इंसान की होती है, और सबसे ज़्यादा हारती है इंसानियत।
भारत को आज युद्ध नहीं, विवेक और रणनीति की ज़रूरत है। शांति की पहल कायरता नहीं, दूरदर्शिता है। अब समय है कि हम सब मिलकर ये कहें — “युद्ध नहीं चाहिए, हमें जीवन चाहिए।”
इसमें सभी तथ्य मेरे नहीं है, अर्थात लेखक( बसंत पांडे) के नहीं हैं।