
गांव भ्रमण कर पर्चा बांटना, जनसंपर्क करना क्या उत्तराखण्ड में गैरकानूनी हो गया है?
बागजाला में किसान नेताओं को पुलिस की रोक-टोक, धमकाने के अंदाज़ में कार्रवाई
हल्द्वानी।
उत्तराखंड में जनसरोकारों को लेकर उठने वाली आवाजों पर पुलिसिया रोक-टोक के ताजा प्रकरण ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। बागजाला गांव में 27 मई को हल्द्वानी के बुधपार्क में प्रस्तावित चेतावनी रैली के लिए जनसंपर्क व पर्चा वितरण कर रहे किसान नेताओं को पुलिस ने अचानक रोक दिया और धमकाने के अंदाज़ में कार्रवाई की।
अखिल भारतीय किसान महासभा के प्रदेश अध्यक्ष आनन्द सिंह नेगी, भाकपा (माले) के जिला सचिव डॉ. कैलाश पांडे, और किसान महासभा बागजाला कार्यकारिणी के सदस्य गांव में रैली के प्रचार-प्रसार के लिए ग्रामीणों से संपर्क कर रहे थे, तभी भारी पुलिस बल और आरएएफ के जवान उनके सामने आकर खड़े हो गए। पुलिस अधिकारियों ने उन्हें बैनर समेटने, प्ले कार्ड हटाने और अभियान रोकने का आदेश दिया।

जब नेताओं ने इस कार्रवाई का कारण पूछा तो उन्हें बताया गया कि इस प्रकार गांव में प्रचार करना प्रतिबंधित है। अधिकारियों ने यह भी कहा कि रैली 27 को है तो उस दिन ही लोगों को बताया जाए, गांव में अभी घूमकर प्रचार नहीं किया जा सकता।
किसान नेताओं ने इसका विरोध करते हुए कहा कि यदि वे प्रचार नहीं करेंगे, तो ग्रामीणों तक सूचना कैसे पहुंचेगी। इसके बावजूद पुलिस अधिकारियों ने किसी बात की परवाह नहीं की और पर्चा वितरण को रोकने पर अड़े रहे। अधिकारियों का कहना था कि वे “गांव में किरायेदार सत्यापन अभियान” के लिए आए हैं, लेकिन जब कोई भीड़, हंगामा या “घपला” होता है तो वह भी रोकना उनका कर्तव्य है।
जब नेताओं ने पूछा कि आखिर उन्होंने कौन सा कानून तोड़ा है, तो अधिकारी उन्हें धमकाने लगे—”वीडियो बनाओ, नाम बताओ, बैकग्राउंड चेक करो, मुकदमा दर्ज करेंगे, चालान काटेंगे।” इतना ही नहीं, एक अधिकारी ने यह तक कह दिया कि “मैं अभी इसी गांव से आपके खिलाफ 50 लोगों को खड़ा कर दूंगा, तब क्या करोगे?”
इस पूरे घटनाक्रम ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या उत्तराखंड में अब जनसंपर्क करना, पर्चा बांटना और लोकतांत्रिक तरीके से अपनी बात रखना भी गैरकानूनी हो गया है? क्या पुलिस अब लोकतांत्रिक अधिकारों के बजाय राजनीतिक पार्टी विशेष के कैडर की तरह व्यवहार कर रही है?
नेताओं का कहना है कि अगर बागजाला गांव में धारा 144 लागू नहीं है, तो फिर इस तरह का पुलिसिया हस्तक्षेप न केवल अनुचित, बल्कि लोकतंत्र के मूल भाव के खिलाफ है। अगर कानून का कोई स्पष्ट उल्लंघन नहीं हुआ है, तो फिर पुलिस को इस तरह प्रचार अभियान रोकने का अधिकार नहीं है।
किसान महासभा ने नैनीताल जिले के एसएसपी से इस घटनाक्रम पर स्पष्ट जवाब मांगा है। साथ ही यह मांग की है कि जो अधिकारी किसानों और जनप्रतिनिधियों को धमका रहे हैं, उन्हें तुरंत दंडित किया जाए।
यह मामला केवल एक गांव की घटना नहीं, बल्कि राज्य की उस बुनियाद से जुड़ा है जो जन आंदोलनों के बल पर खड़ा हुआ। अब जब जनता अपने अधिकारों के लिए आवाज उठा रही है, तो उसे इस प्रकार से कुचलने की कोशिश क्या एक नए, डरावने दौर की शुरुआत है?
जन आंदोलनों को दबाने की नहीं, समझने की ज़रूरत है।