भारत के एक मात्र राज्य उत्तराखण्ड में वन पंचायतों का गठन

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भारत के एक मात्र राज्य उत्तराखण्ड में वन पंचायतों का गठन

विदित रहे की सदियों से ही उत्तराखंड सहित पूरे हिमालयी क्षेत्र का मानव समुदाय वनों पर आश्रित घुमंतू पशुपालक समाज रहा है जो यहां की विषम भौगोलिक परिस्थितियों के कारण मौसम के हिसाब से अपने पशुओं सहित अलग-अलग जगहों पर अस्थाई रूप से निवास करता था। आजादी से पहले अंग्रेजों ने जंगल को राज्य की संपत्ति घोषित कर दिया और लोगों के जंगल में आने-जाने पर पाबंदी लगा दी।

पर्वतीय मूल के लोगों ने के लोगों ने इसका विरोध किया जिसके बाद ब्रिटिश अधिकारियों ने “श्फॉरेस्ट ग्रीवांसेज कमेटीश्” बनाई। इस कमेटी की सलाह पर “इंडियन फॉरेस्ट एक्ट,1927 की धारा 28(2) के तहत”, आजादी से पूर्व ही वर्ष 1931 में वन पंचायतों का गठन शुरू कर दिया।वर्तमान में वन पंचायत एक स्थानीय संस्था है जो कानूनी रूप से सीमांकित ग्राम वन पंचायती वन का प्रबंधन करती है। भारत में वन पंचायत व्यवस्था केवल उत्तराखंड राज्य में ही संचालित है।

उत्तराखंड के कुल 13 में से 11 जिलों में 2020-21 आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार 51125 वर्ग किलोमीटर की कुल क्षेत्र में से लगभग 71.5% भूमि वन अक्षत है इसमें 13.41 प्रतिशत वन लगभग 6417 किलो. क्षेत्र वन पंचायत के प्रबंधन के अंतर्गत आता है और राज्य भर में ऐसी 12167 वन पंचायतें हैं। ये वन 10 लाख ग्रामीण परिवारों की कृषि तथा वानिकी आधारित आजीविका का स्रोत हैं।

वन पंचायतों की आमदनी के अपने स्रोत हैं, जिसमें चीड़ का लीसा, शहद, घास-पत्ती व अन्य वनौषधियों का संग्रहण के अलावा स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से जूस, जैम, जैली आदि की बिक्री से प्राप्त धनराशि शामिल होती है। चूंकि वन पंचायतें अभी भी पूरी तरह से वन विभाग या राजस्व विभाग के नियंत्रण से मुक्त नहीं हैं इसलिए इस आय का उपयोग करने के लिए वन विभाग की अनुमति आवश्यक होती है फिर चाहे वो एक छोटे से तालाब के निर्माण के लिए ही क्यों न हो।

देश के अन्य राज्यों की ही तरह यदि एफआरए को उत्तराखंड में भी सही ढंग से लागू किया जाए तो पर्वतीय क्षेत्रों में लोगों को उनके पीढ़ियों से चले आ रहे वनों पर अधिकार पुनः प्राप्त हो सकेंगे। नैनीताल जिले में स्थित भालू गाढ़ इसका एक सर्वोत्तम उदाहरण है, जहां कसियालेख से धारी जाने वाले रास्ते में करीब छह किमी. दूरी पर गजार, बुरांशी और चौखुटा वन पंचायतों द्वारा इस कानून के तहत दावा कर भालू गाढ़ झरने का अधिकार अपने हाथों में लेकर उसे पर्यटक स्थल के रूप में विकसित किया और आज वे इससे 10 लाख रुपए वार्षिक से अधिक की आय प्राप्त कर रहे हैं। साथ ही कई स्थानीय लोगों को रोजगार भी दे रहे हैं।

प्राप्त जानकारी के अनुसार पिथौरागढ़ और उत्तरकाशी में भी कुछ दावे स्वीकृत किए गए हैं तो बागेश्वर और अल्मोड़ा जिलों में कई वन पंचायतों में वन अधिकार समिति का गठन कर अपने अधिकारों के दावे भरे जा रहे हैं।

वन विभाग की विभिन्न रिपोर्टों के अनुसार ये प्रथा चंद वंश से चली आ रही थी। विदित हो कि उत्तराखंड में चंद वंश वर्ष 700 से 1790 तक रहा है। उसके बाद 1790 से 1815 तक नेपाली गोरखाओं का शासन रहा और फिर अंग्रेजी शासन प्रारम्भ हुआ।

हालांकि चीनी यात्री हुएन त्सांग ने अपनी भारत यात्रा में हरिद्वार के पूर्वी क्षेत्र में भ्रमण करते हुए वर्तमान काशीपुर से काली नदी के किनारे टंकणपुर (टनकपुर) तक फैले भू-भाग को गोविषाण के नाम-रूप में दर्ज किया है। गो-विषाण का शाब्दिक अर्थ है गायों का विश्राम-स्थल। यानी कि यह विस्तृत क्षेत्र उस जमाने में गायों का चारागाह था। इसका एक प्रमाण यह है कि काशीपुर-जसपुर क्षेत्र में तत्कालीन समाज के बौद्ध विहार आज मौजूद भी हैं।

अपनी उसी प्राचीन परंपरानुसार देहरादून से लेकर हरिद्वार, कोटद्वार, रामनगर, हल्द्वानी होते हुए खटीमा वनबसा तक सैंकड़ों छोटे-बड़े खत्ते बसे हुए हैं। केंद्रीय वन अधिकार अधिनियम के तहत प्रदेश की वर्तमान सरकार द्वारा पिछले महीने ही रामनगर वन प्रभाग के अंतर्गत तीन गांवों को राजस्व गांव का दर्जा दिया गया है।

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