एक तरफ जातीय पदोन्नति और दूसरी तरफ 5वीं-6वीं अनुसूची के फायदे की मांग. पुरुषोत्तम शर्मा।

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एक तरफ जातीय पदोन्नति और दूसरी तरफ 5वीं-6वीं अनुसूची के फायदे की मांग. पुरुषोत्तम शर्मा

एक तरफ जातीय पदोन्नति और दूसरी तरफ 5वीं-6वीं अनुसूची के फायदे की मांगपुरुषोत्तम शर्मा

– केन्द्रीय कमेटी सदस्य भाकपा माले(उत्तराखंड में मूल निवास-भू कानून पर बहस, सातवीं क़िस्त)मूल निवास और भू कानून की मांग पर उत्तराखंड में चल रहे आन्दोलन की दिशा को लेकर जारी बहसों के बीच कुछ मित्र पांचवीं अनुसूची में उत्तराखंड को शामिल करने की मांग लेकर भी आ गए है.

उसके पीछे उनका तर्क है कि अंग्रेजी राज में ब्रिटिश कुमाऊँ- गढ़वाल में शिड्यूल डिस्ट्रिक्ट एक्ट लागू था. यह एक्ट आजादी के बाद भारत का संविधान लागू होने के दो दशक बाद तक लागू रहा. इसके साथ यह बात भी याद रखनी चाहिए कि 1931 में गठित पहाड़ की वन पंचायतों को अंग्रेजों ने 1927 के वन कानून के बजाए शिड्यूल डिस्ट्रिक्ट एक्ट के तहत ही गठित किया था. जब यहाँ शिड्यूल डिस्ट्रिक्ट एक्ट अंग्रजों ने लागू किया था, तब उत्तराखंड की आज की जनजातियाँ अलग से जन जाति घोषित नहीं थी.गढ़वाली, कुमाउंनी बोली बोलने वाले और तराई भाबर के गुज्जर उत्तराखंड के सबसे पुराने वासिंदे माने जाते हैं.

उत्तर प्रदेश सरकार ने 1967 में उत्तराखंड के भोटिया (शौका), बुक्सा, थारू, जौनसारी एवं वन राजि (वन रावत) को जन जाति घोषित किया था. उत्तराखंड में इनकी कुल 3 लाख के करीब आबादी है जो राज्य की आबादी का कुल 3 प्रतिशत के करीब बैठता है. संविधान की पांचवीं-छटी अनुसूची के अनुसार किसी भी राज्य, जिला व क्षेत्र को अनुसूचित क्षेत्र घोषित होने के लिए वहाँ जनजातियों की 50 प्रतिशत से अधिक आबादी चाहिए. छठी अनुसूची में स्वायत्त जिला, क्षेत्रीय परिषदों के निर्माण का प्रावधान है. वह इन स्वायत्त निकायों को विभिन्न विधाई, कार्यकारी और न्यायायिक शक्तियां प्रदान करती है.।

छटी अनुसूची असम, मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम के कुछ जनजातीय क्षेत्रों पर लागू है. जैसे कार्बी आंगलांग, दीमा हसाव, बोडोलेंड आदि है.ब्रिटिश दौर के उत्तराखंड और आज के उत्तराखंड में जमीन आसमान का फर्क हो गया है. अंग्रेजों के उत्तराखंड आने दौर में उत्तराखंडी समाज और उसका लोक जीवन काफी कुछ आदिवासी जैसा ही था. उस समय यहाँ का समाज मुख्य रूप से खस संस्कृति और परम्पराओं वाला था.

शादी में लड़की वालों को पैसे दिए जाते थे. शैव परम्परा के देवी देवताओं की पूजा होती थी. कुछ उच्च कुलीन ब्राह्मणों को छोड़कर जो काशी पढ़ने जाते थे, यहाँ के आम जन मानस का बाहर की दुनिया से कम ही सम्पर्क था. बहुत ही पिछड़ी किस्म की खेती, पशुपालन व ग्रामीण दस्तकारी पर आधारित अभावग्रस्त लेकिन आत्म निर्भर अर्थव्यवस्था थी. व्यापार भी बाक़ी भारत के बजाए तिब्बत के साथ ज्यादा था. देश की राजधानी के दिल्ली में आने के बाद उत्तराखंड के प्रभावशाली तबके का देश की मुख्य धारा के साथ जुड़ने का क्रम शुरू हुआ.

उसके बाद पिछले 100 वर्षों में जो बदलाव यहाँ के समाज में आए वो किसी भी अन्य एसे पिछड़े क्षेत्र की जगह काफी व्यापक थे. उत्तराखण्ड के खसों ने हमारे जीवन काल के पिछले 50 वर्षों के अंदर ही खुद को ठाकुरों (राजपूतों) में परिवर्तित कर दिया है. अपनी तमाम स्थानीय उपजातियों को त्यागकर आज वे सब भी रावत, नेगी, बिष्ट, बंगारी, भंडारी, राणा आदि ठाकुरों की जातियों के उपनाम अपनाने लगे हैं. इस दौर में यही हाल खस संस्कृति के ब्राह्मणों का भी है जिन्होंने खुद को उच्च कुलीन ब्राह्मणों की श्रेणी में रखना शुरू किया है.जबकि सभी संशाधनों से वंचित कर दिए गए यहाँ के सबसे पुराने वासिंदे दलित समुदाय को इस सामन्ती उच्च जातीय मनुवादी संस्कृति के खिलाफ संगठित करने के बजाय, तथाकथित दलित समाज सुधारकों द्वारा सवर्णों से बराबरी के नाम पर जनेऊ धारण व पुरोहिती कार्य में लगाकर मनुवादी संस्कृति का पक्का वाहक बना दिया गया है.

यही कारण है कि आज उनका बड़ा हिस्सा मनुवादी संस्कृति व राजनीति की वाहक भाजपा-आरएसएस का मजबूत राजनीतिक आधार बन गया है. इस तरह देखें तो उत्तराखंडी (पहाड़ी) समाज के अन्दर पिछले 50 वर्षों में जातीय पदोन्नति की बयार चल रही है. दूसरी तरफ हमारे कुछ मित्र हैं कि जातीय पदोन्नति में जुटे, अपनी संस्कृति व अपने परम्परागत देवी देवताओं को छोड़ पूरी तरह राममय हुए और देश की मुख्य धारा में सबसे बढ़-चढ़ कर हिस्सेदारी निभा रहे ।

उत्तराखंडियों (गढ़वालियों-कुमाऊंनियों) को जन जाति घोषित कराने की फिराक में लगे हैं.इस लिए मित्रों! हमारी अपील है कि उत्तराखंड के भविष्य से जुड़े इन दोनों मुद्दों (कृषि भूमि के संरक्षण व विस्तार सहित राज्य में एक व्यापक भूमि सुधार कानून व मूल निवास) की लड़ाई को सही दिशा में ले जाने के प्रयास करो! पहाड़ ने अपने राजनीतिक व सामाजिक नेतृत्व की गलत दिशा के कारण पहले ही बहुत नुकसान उठा लिया है। अब भी लुटेरी सत्ता की साजिशों से बेखबर रहकर आंदोलनों को जितना भटकाओगे, उत्तराखंड के आम लोगों का उतना ही नुकसान होगा.

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