
उत्तराखंड पंचायतों का कार्यकाल समाप्त, चुनाव में देरी संवैधानिक संकट की ओर?
संविधान का अनुच्छेद 243E प्रशासनिक निर्णयों के लिए चुनौती बना
उत्तराखंड की 12 जिलों की पंचायतों का कार्यकाल 27 नवंबर 2024 को समाप्त हो चुका है। संविधान के अनुच्छेद 243E के तहत यह कार्यकाल 5 वर्षों का होता है, जो पंचायत की पहली बैठक से शुरू होता है। अब जबकि कार्यकाल समाप्त हो चुका है और प्रशासक नियुक्त किए जा चुके हैं, यह सवाल उठ रहा है कि क्या राज्य सरकार दोबारा अध्यादेश लाकर इस अवधि को बढ़ा सकती है?
संविधान क्या कहता है?
अनुच्छेद 243E, जो 73वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 के तहत लागू हुआ, पंचायतों को संवैधानिक दर्जा देता है। इसके तहत प्रमुख प्रावधान इस प्रकार हैं:
- हर पंचायत का कार्यकाल 5 वर्षों का होगा।
- यदि कार्यकाल के पहले पंचायत भंग होती है, तो 6 माह के भीतर नए चुनाव आवश्यक हैं।
- भंग होने पर चुनी गई नई पंचायत केवल शेष कार्यकाल के लिए ही काम करेगी।
- पंचायत भंग होने या कार्यकाल समाप्त होने पर अधिकतम 6 माह के लिए प्रशासक नियुक्त किए जा सकते हैं।
उत्तराखंड की वर्तमान स्थिति
उत्तराखंड पंचायती राज अधिनियम, 2016 के तहत पंचायतों की व्यवस्था संचालित की जाती है। राज्य में कार्यकाल की समाप्ति के बाद मतदाता सूची का अंतिम प्रकाशन 13 जनवरी 2025 को हो चुका है और चुनाव फरवरी-मार्च 2025 में प्रस्तावित हैं। लेकिन मई 2025 तक भी चुनाव नहीं हो पाए हैं।
क्या कार्यकाल दोबारा बढ़ाया जा सकता है?
संविधान इस बात की स्पष्ट अनुमति नहीं देता। 2024 में जब पंचायत प्रतिनिधियों ने कार्यकाल 2 साल बढ़ाने की मांग की ताकि हरिद्वार सहित सभी जिलों में एक साथ चुनाव हो सकें, तो यह मांग संविधान के अनुच्छेद 243E के विरुद्ध पाई गई और अस्वीकार कर दी गई।
अब सवाल उठता है कि यदि मई 2025 तक भी चुनाव नहीं होते, तो क्या एक बार फिर अध्यादेश लाकर प्रशासकों की अवधि बढ़ाई जा सकती है?
संवैधानिक और कानूनी दृष्टिकोण से स्थिति जटिल
- अध्यादेश राज्य सरकार जारी कर सकती है, लेकिन वह संविधान के मूल ढांचे के विरुद्ध नहीं हो सकता।
- अनुच्छेद 243E में स्पष्ट रूप से 6 माह के भीतर चुनाव का निर्देश है।
- राजस्थान हाईकोर्ट और अन्य अदालतें पहले ही यह स्पष्ट कर चुकी हैं कि अस्थायी प्रशासक व्यवस्था 6 महीने से अधिक नहीं चल सकती।
केवल असाधारण परिस्थितियों में ही हो सकता है अध्यादेश
प्राकृतिक आपदा, राष्ट्रीय आपातकाल, या गंभीर प्रशासनिक विफलता जैसे मामलों में ही सरकार अध्यादेश के माध्यम से कुछ राहत पा सकती है, लेकिन वह भी न्यायिक समीक्षा के अधीन होगी।
लोकतंत्र के लिए खतरा?
यदि संविधान की अवहेलना कर पंचायतों को प्रशासकों के भरोसे लंबे समय तक चलाया जाता है, तो यह न केवल संविधान की भावना के विरुद्ध होगा, बल्कि स्थानीय लोकतंत्र पर भी प्रश्नचिह्न लगाएगा।
निष्कर्ष:
अनुच्छेद 243E भारतीय लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करता है और पंचायतों को समयबद्ध, नियमित और चुनी हुई संस्थाएं बनाए रखने का आश्वासन देता है। उत्तराखंड सरकार को चाहिए कि वह संवैधानिक दायरे में रहकर जल्द से जल्द चुनाव सुनिश्चित करे, अन्यथा यह मामला उच्च न्यायालय या सुप्रीम कोर्ट की दहलीज तक पहुंच सकता है।
📌 यह लेख संविधान के अनुच्छेद 243E, उत्तराखंड पंचायती राज अधिनियम 2016, और हालिया प्रशासनिक घटनाक्रम पर आधारित है।
🔗 सूत्र: [Grok (OpenAI Constitutional Insights)], [भारत का संविधान], [उत्तराखंड पंचायती राज अधिनियम 2016], [राजस्थान उच्च न्यायालय निर्णय], [भारत निर्वाचन आयोग दस्तावेज़]।
जनता के सवाल, सरकार के जवाब अधूरे
ग्रामीणों का सवाल है कि यदि आम चुनाव समय पर हो सकते हैं, तो ग्राम चुनाव क्यों नहीं? सरकार की तरफ से कोई स्पष्ट समयरेखा नहीं दी गई है। न तो मुख्य सचिव कार्यालय और न ही राज्य चुनाव आयोग ने ठोस बयान जारी किया है। इससे असमंजस और असंतोष दोनों बढ़ते जा रहे हैं।
पूर्व राज्य निर्वाचन आयुक्त डॉ. वीके बहुगुणा ने कहा
,“यह संवैधानिक प्रावधान का उल्लंघन है। यदि जून 2025 तक पंचायत चुनाव नहीं होते, तो सरकार न्यायिक चुनौती का सामना कर सकती है। ग्रामीण लोकतंत्र को समय पर चुनावों से ही मजबूती मिलती है।”
सहयोगी नवाचारी शिक्षक महेश पुनेठा।