उत्तराखंड के पहाड़ों में संविधान की 5वीं अनुसूची लागू करने की जरूरत

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उत्तराखंड के पहाड़ों में संविधान की 5वीं अनुसूची लागू करने की जरूरत
श्याम सिंह रावत

ब्रिटिश शासन के दौर में देश के अनेक क्षेत्रों को उनकी विशिष्ट साँस्कृतिक-सामाजिक पृष्ठभूमि को देखते हुए उनके संरक्षण-संवर्द्धन के लिए अधिसूचित किया गया था। तत्कालीन संयुक्त प्रांत (वर्तमान उत्तर प्रदेश) के पर्वतीय क्षेत्र को भी जनजातीय क्षेत्र मानते हुए यहाँ शेड्यूल्ड डिस्ट्रिक्ट एक्ट 1874 तथा सन 1921 में नॉन रेगुलेशन एरिया के प्रावधान लागू किए गए थे। यानी इस क्षेत्र में रैगुलर पुलिस की बजाय पटवारी व्यवस्था लागू की गई। फिर इस पहाड़ी क्षेत्र को सन 1935 में बहिष्कृत क्षेत्र घोषित किया गया। यह व्यवस्था केवल जनजातीय क्षेत्र घोषित इलाकों में ही लागू थी।

स्वतंत्रता के बाद संविधान लागू होने के साथ ही देश के ऐसे क्षेत्रों के मूल निवासियों को जनजाति का दर्जा देकर संविधान की 5वीं या 6ठी अनुसूची में रखते हुए इनके लिए विशेष प्रबंध किए गए। लेकिन उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र को 5वीं अनुसूची में शामिल करने के बजाय 1972 में चिकित्सा-शिक्षा में प्रवेश पर आरक्षण देने तक सीमित कर अन्य सभी से इसे बाहर कर दिया गया। 1996 में चिकित्सा-शिक्षा में प्रवेश सम्बंधी वह प्रावधान भी खत्म कर दिया गया। हालांकि उत्तर प्रदेश सरकार के अलावा केंद्र सरकार से भी विशेष फंड मिलता रहा।

उधर, जम्मू-कश्मीर सहित पूरे हिमालयी क्षेत्र के राज्यों के लिए विशिष्ट संवैधानिक प्रावधान किए गए, लेकिन उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों के जल, जंगल, जमीन और अन्य संसाधनों पर सदियों पुराने अधिकार छीन लिए गए।

आज राज्य के पहाड़ी जिलों के 1,726 गाँव पूरी तरह जनशून्य हो गए हैं। राज्य सरकार द्वारा गठित ‘ग्राम्य विकास और पलायन रोकथाम आयोग’ की रिपोर्ट के अनुसार:

  • 2008-2018 के बीच 5,02,717 लोगों ने पलायन किया
  • 2018-2022 के बीच 3,35,841 लोग पलायन कर चुके हैं

2018-2022 के बीच हर दिन औसतन 230 लोग अपना गाँव छोड़ रहे हैं।

पलायन की इस विभीषिका के चलते पर्वतीय क्षेत्रों के 6 विधानसभा क्षेत्र घटा दिए गए हैं।

हालांकि राज्य सरकार ने मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना के जरिए आसान ऋण देने की योजना शुरू की लेकिन इसका भी कोई विशेष लाभ नहीं हुआ।

पृथक उत्तराखंड राज्य गठन से भी पहाड़ी क्षेत्र की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ा क्योंकि न तो गैरसैंण को राजधानी बनाया गया और न ही पर्वतीय जनता की आर्थिक-शैक्षिक स्थिति में अपेक्षित सुधार हुआ।

राष्ट्रीय सुरक्षा के दृष्टिगत यह अत्यावश्यक हो गया है कि उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों को संविधान की 5वीं अनुसूची में शामिल किया जाए।
‘उत्तराखंड एकता मंच’ के बैनर तले दिल्ली, देहरादून, हल्द्वानी, नैनीताल व अन्य स्थानों पर आयोजित सम्मेलनों में प्रबुद्धजनों की भारी उपस्थिति ने इस मांग को बल दिया है।


क्या कहती है संविधान की 5वीं अनुसूची—
भारतीय संविधान की 5वीं अनुसूची विशेष रूप से अनुसूचित क्षेत्रों और वहाँ के जनजातीय निवासियों के हितों की रक्षा के लिए बनाई गई है।


5वीं अनुसूची का उद्देश्य—

  • जनजातीय संस्कृति, रीति-रिवाज, भूमि और संसाधनों के अधिकारों की रक्षा करना
  • बाहरी हस्तक्षेप और शोषण से बचाव
  • स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार प्रशासनिक सुविधा

5वीं अनुसूची के प्रमुख प्रावधान—

  1. अनुसूचित क्षेत्रों की घोषणा — संविधान के अनुच्छेद 244(1) के तहत राष्ट्रपति किसी क्षेत्र को अनुसूचित क्षेत्र घोषित कर सकते हैं।
  2. राज्यपाल की विशेष शक्तियाँ — राज्यपाल को इन क्षेत्रों में विशेष कानून बनाने और बाहरी कानूनों को निष्क्रिय करने का अधिकार है।
    उदाहरण— भूमि अधिग्रहण या खनन सम्बंधी कानूनों को लागू न करना।
  3. जनजातीय सलाहकार परिषद — अनुसूचित क्षेत्रों के विकास के लिए राज्यपाल को सलाह देने हेतु परिषद का गठन।
  4. कानूनी संरक्षण — भूमि और संपत्ति पर जनजातीय निवासियों के अधिकारों की रक्षा।
  5. प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार — जल, जंगल, जमीन पर मूल निवासियों का संरक्षण।
  6. विकास के विशेष प्रावधान — शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार के क्षेत्र में विशेष योजनाएँ।
  7. संविधान संशोधन और न्यायिक संरक्षण — संसद द्वारा संशोधन और न्यायालय द्वारा अधिकारों की रक्षा।
  8. ग्रामसभा की भूमिका — जमीनों की सुरक्षा और गैर-कानूनी कब्जे से संरक्षण।
  9. युवाओं को नौकरियों में आरक्षण — तृतीय व चतुर्थ श्रेणी में नियुक्ति का आरक्षण।
  10. महिलाओं के लिए विशेष सुरक्षा — अनुसूचित जनजाति अधिनियम के अंतर्गत।

उत्तराखंड की ऐतिहासिक एवं साँस्कृतिक पहचान—
उत्तराखंड का पर्वतीय क्षेत्र ‘खसों’ की भूमि रहा है।
प्रसिद्ध इतिहासकारों के अनुसार:

  • एडविन टी. एटकिन्सन (हिमालयन गजेटियर, 1884)
  • जी. ए. ग्रियर्सन (लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया, 1916)
  • कैप्टन जे. एवट (ए हैंडबुक ऑन गढ़वाली 1880)
  • एच. जी. वॉल्टन (गजेटियर 1910)

इन सभी ने खस समुदाय की इस क्षेत्र में ऐतिहासिक उपस्थिति को प्रमाणित किया है।


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