बिंदुखत्ता एक साल से लटका है… सरकार फाइल देख रही, जनता जमीन!

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बिंदुखत्ता: राजस्व गाँव की राह में नौकरशाही बाधा, एक साल से सचिवालय में अटका फैसला

लालकुआं । 19 जून 2025

उत्तराखंड के नैनीताल जिले की तराई में बसे बिंदुखत्ता को राजस्व गाँव का दर्जा दिलाने की लड़ाई वर्षों से चल रही है। वन अधिकार अधिनियम (FRA) के तहत तैयार की गई पत्रावली को डीएलसी से स्वीकृति मिले आज एक वर्ष हो चुका है, लेकिन सचिवालय में फाइल लंबित है। यह देरी क्षेत्र की जनता में निराशा और आक्रोश का कारण बन रही है।

नैनीताल की तराई-भाबर भूमि में बिंदुखत्ता का अस्तित्व नया नहीं है। कुमाऊं और गढ़वाल के पर्वतीय अंचल के लोग चंद्रवंशी राजाओं के काल (800 ई. से पूर्व) से यहां पारंपरिक रूप से पशुपालन व वनों पर आधारित जीवन जीते आए हैं।
उत्तराखंड शासन के पूर्व मुख्य सचिव डॉ. आर.एस. तोलिया ने भी पर्यावरण मंत्रालय, भारत सरकार को पत्र लिखकर इस ऐतिहासिक परंपरा का उल्लेख किया है।
उनके अनुसार, सर्दियों में रोजगार और चारे की कमी के चलते पर्वतीय लोग अपने परिवार और पशुओं सहित तराई में अस्थायी रूप से डेरा डालते थे और फिर अपने मूल निवास लौट जाते थे। इनमें से कुछ परिवार कुछ महीनों के लिए और कुछ पूरे वर्षभर तराई एवं भाबर के आरक्षित वनों में रहते थे। इन अस्थायी डेरों को “खत्ता/गोठ” कहा जाता था, जिनका उल्लेख 1909 के राजस्व अभिलेखों में भी मिलता है।

बिंदुखत्ता की भूमि पर पारंपरिक रूप से पर्वतीय घुमंतू (यायावरी) पशुपालकों का निवास रहा है, जो गर्मियों में पहाड़ों और सर्दियों में तराई में आते थे। ब्रिटिश शासनकाल में इनसे चराई कर वसूला जाता था। 1931 के बाद जब वन पंचायतें गठित हुईं, तो इस क्षेत्र में 1932 से चराई कर माफ कर दिया गया।
1973 में विजय बहादुर कमेटी की रिपोर्ट, 1980 में हटाने की कार्रवाई पर रोक और 1981 में तत्कालीन वन मंत्री द्वारा ग्रामवासियों को फसल काटने की अनुमति जैसे शासनादेश बताते हैं कि सरकार की नीति इस क्षेत्र को राजस्व गाँव का दर्जा देने की रही है। यह सब बिंदुखत्ता की ऐतिहासिक मान्यता को पुष्ट करते हैं।

आज बिंदुखत्ता में दुग्ध समितियां, सड़क, बिजली, पानी, स्कूल, अस्पताल, आईटीआई, बैंक और मोबाइल टावर से लेकर डिजिटल सेवाओं तक का जाल बिछ चुका है।
80,000 से अधिक की इस बसावट में जीवन की सारी आवश्यकताएं मौजूद हैं, लेकिन भूमि पर अधिकार आज भी अधूरा है।
2009, 2011, 2014 और 2022 में राजस्व गाँव घोषित करने और नगर पालिका बनाए जाने की घोषणाएं तो हुईं, पर वे कानूनी उलझनों में फंसकर रह गईं।

अब 2006 के वन अधिकार अधिनियम के तहत ग्रामवासियों ने दावा प्रस्तुत किया, जिसे डीएलसी से 19 जून 2024 को स्वीकृति मिल गई।
केंद्रीय जनजाति मंत्रालय स्पष्ट कर चुका है कि अधिनियम के तहत जिला स्तर का निर्णय अंतिम होता है और पूर्व के आदेश बाध्यकारी नहीं होते। बावजूद इसके, एक वर्ष बाद भी शासन द्वारा अधिसूचना जारी नहीं की गई है।

क्षेत्र में चर्चा है कि सरकार इस फाइल को आगामी विधानसभा चुनावों के दौरान अधिसूचना जारी करने हेतु रोककर बैठी है, ताकि इसका राजनीतिक लाभ लिया जा सके।
इसी कारण लोग इसे “वोट बैंक से जोड़ने की रणनीति” मान रहे हैं।

लेकिन वहीं, अशोक चक्र विजेता मोहन नाथ गोस्वामी मिनी स्टेडियम की भूमि, एक बीघा भी पूर्व सैनिकों को देने का वादा, मुक्तिधाम का जीर्णोद्धार, या घोड़ानाला पुल निर्माण जैसे काम अब तक अधूरे हैं — ऐसे में यह सवाल भी बड़ा है कि क्या बिंदुखत्ता को राजस्व गाँव बनाना केवल घोषणा बनकर रह जाएगा?

स्थानीय विधायक डॉ. मोहन सिंह बिष्ट का कहना है कि बिंदुखत्ता को राजस्व गाँव बनाना उनका ड्रीम प्रोजेक्ट है और वह अपने कार्यकाल में इसे जरूर पूरा करेंगे।
उनके अनुसार, पत्रावली अब अंतिम चरण में है और सरकार शीघ्र अधिसूचना जारी करेगी। जैसे बरसों से रुका हुआ बिंदुखत्ता में बिजली का कार्य प्रारंभ किया है, इस तरह सभी कार्य पूरे हो रहे हैं और होंगे।

वहीं वन अधिकार समिति के सदस्यों का कहना है कि इतनी लंबी प्रक्रिया और पारदर्शिता के बावजूद देरी केवल ग्रामवासियों को भ्रम में डालने जैसा है।
सवाल यह उठ रहा है कि जब समिति ने सारी प्रक्रिया पूरी कर दी है, तो अधिसूचना जारी करने में शासन देरी क्यों कर रहा है?

बिंदुखत्ता का सवाल केवल जमीन के दस्तावेजों का नहीं है, यह एक पूरे समुदाय की पहचान, गरिमा और स्थायित्व से जुड़ा विषय है।
एक वर्ष बाद भी अधिसूचना का न आना केवल प्रशासनिक लापरवाही नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जनता के विश्वास को ठेस पहुंचाने जैसा है।
यदि शीघ्र निर्णय नहीं लिया गया, तो यह मुद्दा जनआक्रोश की ज्वाला बन सकता है।


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